प्रमुख शिक्षाविद् उपाध्याय ने देहदान की प्रक्रिया पूर्ण कर उदाहरण प्रस्तुत किया

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अपने लिए जिए तो क्या जिए..तू जी ए दिल जमाने के लिए ..मशहूर फिल्म बादल की इन पंक्तियों में गीतकार मन्ना डे ने दूसरे के लिए जीने अथवा काम आने की प्रेरणा का मार्मिक संदेश दिया है। समाज में हर व्यक्ति अपने व्यवहार से अन्य लोगों से सपर्क इसलिए बढाता है कि वो उसके दुख-दर्द में काम आ सके। लेकिन हमारे सय समाज में कई लोग ऐसे भी है जिन्होंने अपना जीवन जीते हुए ना केवल मानव सेवा के लिए अपने आपको समर्पित किया बल्कि मृत्यु के बाद भी परोपकार के लिए देहदान की घोषणा कर किसी के काम आने का वलंत व अनूठा निर्णय लेकर अपने यश को सदा के लिए अमर कर दिया है। ऐसा ही एक उदाहरण मालपुरा के प्रमुख शिक्षाविद् चन्द्रमोहन उपाध्याय ने प्रस्तुत किया है, जिन्होंने सोमवार को एसएमएस मेडिकल कॉलेज जयपुर के शरीर रचना विभाग में उपस्थित होकर देहदान प्रक्रिया को पूर्ण किया। खास बात यह रही कि इस अवसर पर साक्षी के रूप में उनकी पत्नि सुधा, पुत्री अदिति के साथ-साथ जीवन के हर अछे-बुरे दौर के साथी मित्र पूर्व प्रधानाचार्य हरिनारायण विजय एवं बालूराम गुर्जर उपस्थित रहे। उल्लेखनीय है कि चन्द्रमोहन उपाध्याय शिक्षा जगत का एक ऐसा चिर-परिचित नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उपाध्याय शिक्षा जगत में अध्यापक से प्रधानाचार्य, ब्लॉक मुख्य शिक्षाधिकारी तथा जिलाशिक्षाधिकारी के पद पर कार्यरत रह कर अपनी राजकीय सेवाएं दे चुके है तथा आज भी शहर के प्रतिष्ठित निजी विद्यालय एम डी पब्लिक स्कूल के  संचालनकर्ता है। जहां शिक्षा के नवाचारों के साथ शिक्षण का उनका अनूठा ढंग उन्हें दूसरों से श्रेष्ठ साबित करता है। उनके विद्यालय के श्रेष्ठ शिक्षा परिणाम शिक्षा जगत की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा में उंचे पायदान पर प्रतिष्ठित करता है। हाल ही में लॉकडाउन के दौरान लोगों के खट्टे-मीठे, अछे-बुरे, सुखद-दुखद, नफा-नुकसान के अनुभवों को लेकर उपाध्याय ने श्रेष्ठ रचनाओं को आमंत्रित कर संकलन कर -दुनिया घुटनों पर- शीर्षक से एक पुस्तक का प्रकाशन किया जिसे काफी सराहना मिली व पाठकों द्वारा बहुत पसंद किया गया। इस पुस्तक की प्रसिद्धि का आलम यह रहा कि हजारों प्रतियां ऑनलाइन देश व विदेश में मंगवाई गई। इस अवसर पर खास बातचीत करते हुए उपाध्याय ने बताया कि कोरोना काल में कई लोगों ने अपनों को खोया, बिना किसी उम्र व रोग के लोग संक्रमित होकर मौत का शिकार बन गए जिससे परिजन स्तब्ध रह गए, मृत लोगों को कंधा तक नसीब नहीं हुआ। ऐसे में संसार की नश्वरता का आभास हुआ व गहरी सोच के बाद निर्णय लिया कि जीते जी तो जो हुआ सो हुआ लेकिन मृत्यु के बाद भी किसी के काम आया जाए। इन्हीं भावनाओं के साथ यह निर्णय लिया। परिवार के विरोधाभास के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि बेटी ने अंतिम संस्कार नहीं किए जाने से मोक्ष नहीं मिलने की बात कही थी लेकिन उसे प्यार से समझाया कि शव का क्रियाकर्म कर पिण्डदान करना मोक्ष का मार्ग नहीं बल्कि मृत्यु के बाद शव भी किसी के काम आ सके इससे बडा कोई परोपकार, सेवा कार्य हो नहीं सकता।

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